तथाकथित सभ्य समाज ने हमेशा से ही महिलाओं के इस वर्ग को अभद्र माना है और उनकी उपेक्षा ही की है। वैश्यावृत्ति में जबरन लाई जाने वाली इन महिलाओं का भविष्य अंधकारमय है और उसमे उजाला लाने की कोशिश विरले ही किसी ने की है। यह कविता ऐसी महिलाओं को समर्पित है एवं उनके जीवन सत्य से सभी को परिचित कराने का एक प्रयास है।
काली अँधेरी रातें हों या फिर दिन की
उजियाली हो,
हो ऋतु बसंत मनमोहक, थिरकती हर तरु डाली हो।
झूठे पौरुष के अहंकार का, मैं धीमा गौरवगान हूँ,
उपेक्षित बेटी हूँ समाज की, आत्मा से निष्प्राण हूँ।
जब मेरा मोल लगाया जाता मानवता की
मंडी में,
रोज़ खड़ी होती हूँ मैं जीवन-मृत्यु की पगडण्डी में।
ग्राहक हेतु हूँ तीर्थ स्थल, निज हेतु मैं शमशान हूँ,
उपेक्षित बेटी हूँ समाज की, आत्मा से निष्प्राण हूँ।
प्रतित्यक्त छोड़कर चले गए जीवन में
जो भी आए थे,
निज हेतु कुछ स्वप्न सलोने मुझ पगली ने भी सजाए थे।
स्वप्नों में मैं कभी-कभी, भरती उन्मुक्त उड़ान हूँ,
उपेक्षित बेटी हूँ समाज की, आत्मा से निष्प्राण हूँ।
तिरस्कार का जीवन विष पीने से ज़्यादा
दुखदाई है,
मेरी कंटक सेज सम्मुख, शर-शैय्या भी शरमाई है।
अपनों के हाथों कलंकित होती, द्रुपद कन्या सामान हूँ,
उपेक्षित बेटी हूँ समाज की, आत्मा से निष्प्राण हूँ।
लोगों के मत में मुझे देह व्यापार
बड़ा ही भाता है,
सच कहूँ? यहाँ कोई अपनी इच्छा से कभी न आता है।
नर की विकृत सोच से झुलसी, धरती माँ की संतान हूँ,
उपेक्षित बेटी हूँ समाज की, आत्मा से निष्प्राण हूँ।
विनती नहीं करती हूँ मैं, खुद को
स्वीकारे जाने की,
ना इच्छा है निज हेतु तुमसे नारे लगवाने की।
किन्तु इतना तुम याद रखो, मैं तुम जैसी ही इंसान हूँ,
उपेक्षित बेटी हूँ समाज की, आत्मा से निष्प्राण हूँ।