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Chapter 1 :

कोई अपना

आज चौबीस दिसंबर है। सुबह से ही चारों तरफ़ कोहरा है। बीते तीन से शहर में धूप का नाम और निशान नहीं है। अभी शाम के पाँच बजकर बीस मिनट ही हुए हैं और शाम ढल चुकी है। वैसे सर्दियों में शाम का जल्दी ढल जाना मुझे बहुत पसंद आता है। कह सकता हूँ कि मुझे शामें पसंद हैं। और आज तो मौसम भी अपने पूरे शबाब पर है। बीते कल ही ऑफ़िस में क्रिस्मस की छुट्टियाँ शुरू हुई हैं। मुझे एयरपोर्ट से कैब में बैठे क़रीब आधा घंटा हो चुका था और मेरी कैब दिल्ली की सड़कों के अनेक पड़ावों को पार करती हुई इंडिया गेट की लाल बत्ती पर रुकी ही थी कि एक किन्नर माँगने के मक़सद से मेरी कैब के नज़दीक आकार शीशा नीचे करने की रिकुएस्ट करने लगा। मैंने शीशा नीचे किया और किन्नर को अपनी बुशर्ट की जेब में से बीस रुपए का नोट थमा दिया। वो मेरे सिर पर अपना हाथ रखते हुए मुझे नौकरी, जीवनसंगिनी वग़ैरह... वग़ैरह... जैसी दुआएँ देता हुआ आगे बढ़ गया। अभी हरी बत्ती होने में क़रीब एक सौ बारह सेकंड बाक़ी थे। गाड़ी का शीशा अब भी आधा नीचे ही था। बाहर दिल्ली की इस ठंड में, कुछ से कपल आइसक्रीम का मज़ा ले रहे थे। बहुत से हाथ में हाथ डाले मधुमक्खियों के झुंड की तरह इंडिया गेट पर इकट्ठा थे। सड़क के दोनों किनारों पर आइसक्रीम वालों, गुब्बारे वालों की भीड़ थी। राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक सड़कें रोशनी से नहा रही थीं। वाकई आज कर्तव्य पथ पर दूसरे दिनों के मुक़ाबले ज़्यादा भीड़ थी। मेरी कैब आगे बढ़ चली थी। अब तक रास्ते में आए बाज़ारों या गली-कुचों और सड़कों पर हर तरफ़ लोगों की भीड़ दिखाई पड़ रही थी। हर कोई क्रिस्मस और आने वाले नए साल की इन छुट्टियों का अपने-अपने अंदाज़ में जश्न मना रहा है। और जश्न हो भी क्यों न भला, आख़िर सर्दियों के इन दिनों की अपनी ही फिज़ा होती है। और इसी फिज़ा में, मैं दिल्ली के थका देने वाले ट्रैफ़िक से गुज़रता हुआ, आख़िरकार नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया था। वैसे मैं आपको बता दूँ कि मैं अपने कॉलेज के ज़माने के सबसे क़रीबी दोस्त, गगन और उसके परिवार वालों के साथ, आज शाम सात बजे की ट्रेन से क्रिस्मस की छुट्टियाँ मनाने, नैनीताल जा रहा हूँ। नैनीताल, झीलों, कुमाऊँ की हसीन वादियाँ, मॉल रोड और मोहब्बत का शहर। सफ़र में कौन-कौन आ रहा, इस बारे में गगन ने मुझे एक हफ़्ता पहले ही बता दिया था। उसके परिवार के लोगों को तो मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। गगन के बड़े भाई और भाभी, उसकी छोटी बहन रजनी, उसके मामा की लड़की आशा, और गगन की मंगेतर अदिति। सफ़र को लेकर मैं सुबह से बहुत उत्साहित हूँ। आख़िर कॉलेज ख़त्म हो जाने के आठ साल बाद, मैं गगन के परिवार वालों से हक़ीक़त में मिलने वाला हूँ। हालाँकि, बीते कुछ साल पहले फ़ेसबूक और इंस्टाग्राम के ज़रिए उन लोगों से मुलाक़ात हो जाती थी। लेकिन जब से मैंने इन सोशल साइट्स को अलविदा कहा है, तब से मैं लोगों से हक़ीक़त में मिलना पसंद करता हूँ। गगन की मंगेतर अदिति जो है, वो कॉलेज से ही मेरी सबसे अच्छी, मस्त-मौला बिंदास दोस्त है। कॉलेज के ही दिनों में ही गगन और अदिति का प्यार परवान चढ़ा था। और अब दोनों अपनी-अपनी व्यावसायिक ज़िंदगियों में अपने-अपने क्षेत्रों में, अपना-अपना मुक़ाम हासिल करने के बाद, एक दूसरे के साथ जन्म-जन्मांतर के बंधन में बंधने को तैयार हैं। वैसे गगन के परिवार से भी, मेरा संबंध इतना ही पुराना और गहरा है। उन्होंने कॉलेज के दिनों से ही मुझे कभी पराएपन का एहसास होने नहीं दिया। कितनी ही रातें मैंने गगन के घर बिताईं हैं। मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लैटफ़ॉर्म नंबर ग्यारह की तरफ़ जैसे-जैसे नज़दीक जा रहा था, मेरी उत्सुकता भी अपने चरम पर पहुँच रही थी। मेरे मन में सैकड़ों सवाल घूम रहे थे। न जाने भैया-भाभी मुझसे देख कर क्या रिएक्ट करेंगे? रजनी को तो मैं छिपकली बोलकर चिड़ाऊँगा। कॉलेज की यादें, बार-बार मन में किसी सिनेमा की तरह चल रही थीं। एक बार की बात है, हम तीनों कॉलेज ग्रुप में शिमला घूमने गए थे। बेशक कितना हसीन सफ़र था वो, लेकिन गगन और अदिति की वहाँ हो गई लड़ाई। और लड़ाई भी बहुत भयंकर। फिर आख़िर उस लड़ाई को मैंने ही सुलझवाया। उस दिन मैं ये बात बख़ूबी समझ गया था कि ये दोनों कितना भी एक-दूसरे से लड़ लें, लेकिन कभी एक-दूसरे को छोड़ नहीं सकते। क़रीब सात मिनट पैदल चलने की बाद आख़िरकार, मैं प्लैटफ़ॉर्म नंबर ग्यारह पर था। आज ट्रेन अपने तय समय पर है। मेरे कंधे पर पीछे से किसी ने हल्का सा हाथ मारा। मैं मुड़ा तो पीछे गगन और उसके परिवार वाले थे। ख़ुशी से मेरे रौंगटे खड़े हो गए। वाकई बहुत गर्मजोशी से गले मिले थे हम। अदिति कितनी ख़ुश थी मुझे देखकर। सभी लोगों से मिलकर, दिल और आत्मा दोनों को बहुत सुकून मिला था। रजनी और आशा ने तो एक बार को मुझे पहचाना ही नहीं। वैसे उन दोनों का मुझे न पहचानना वाजिब भी था। क्योंकि जब पिछली बार उन्होंने मुझे साक्षात देखा था, तब से अब तक मेरा वज़न काफ़ी बढ़ चुका था। मेरे चेहरे पर दाढ़ी और मुछ भरकर उग आई थीं। अब तक सभी से दुआ सलाम हो चुकी थी। हम सभी ने अपनी-अपनी सीटें पकड़ ली थीं। यहाँ-वहाँ की बातें हो ही रही थीं कि भैया-भाभी ने मज़ाक़-मज़ाक़ में कहा, “अरे निशांत तुम कब कर रहे हो शादी… अगर इसी तरह तुम्हारा वज़न देश की आबादी की तरह बढ़ता गया... तो बाबू बहुत मुश्किल हो जाएगी...” मैंने भी मुसकुराते हुए पलट कर कहा, “बस यही समझ लीजिए आज ही से वज़न नियोजन शुरू...”। हमारी हँसी-ठिठोली के बीच अदिति के ठीक साथ में खिड़की की तरफ़ बैठी लड़की का चेहरा मुझे देखता हुआ मुस्कुरा रहा था। तभी, अदिति ने उस चेहरे की तरफ़ देखकर मेरा परिचय करवाते हुए कहा, “ये हैं मिस्टर निशांत उर्फ़ कविराज हमारे कॉलेज के दोस्त...”। सामने बैठे उस चेहरे का मैंने दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया, मगर अदिति ने वह परिचय अधूरा ही करवाया था। मुझे अब तक उस चेहरे का नाम नहीं मालूम था। और ना ही ये मालूम था कि वे महोदया कौन हैं। मगर उस चेहरे की मुस्कुराहट ने मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित किया था। एक सकारात्मक ऊर्जा प्रदान की थी। तभी मेरे दिल ने उछलकर, मेरे मन से “दिल तो पागल है” फ़िल्म का गाना, भोली सी सूरत आँखों में मस्ती दूर खड़ी शर्माए… आय हाय… गाना गाने को कहा। मैं अपने मन में सोच रहा था कि वाकई अगर इस वक़्त फ़िराक़ गोरखपुरी यहाँ होते, तो बस यही कहते, “कोई समझे तो एक बात कहूँ... इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं... ।“ ट्रेन चल पढ़ी थी। सभी लोग ट्रेन में फ़ाइनल तौर पर अपनी-अपनी सीटें ले चुके थे। अब बिना परिचय वाली महोदया अदिति की दोस्त, ठीक मेरे सामने ऊपर वाली बर्थ पर थीं। सफ़र को शुरू हुए अभी सिर्फ़ दो घंटे ही बीते थे। और हम सभी चाय स्नैक्स के कुछ देर बाद अपने-अपने में व्यस्त होने लग गए थे। इस बीच मैं और वो महोदया, एक-दूसरे को क़रीब तीस से ज़्यादा बार निहार चुके थे। मैंने सामने रखे अपने बैग में से हेक्टर गार्सिया और फ्रांसेस्क मिरालेस की लिखी इकिगाई पढ़ने को निकाली कि तब सामने बैठी उन महोदया ने पहल करते हुए अपना हाथ आगे बड़ाया और मुझसे बोलीं, “हाय... माफ़ी चाहूँगी उस समय अदिति की तरफ़ से परिचय अधूरा ही रहा... मैं अमृता...” मैंने वो पुस्तक साइड में रखी और दोनों हाथ जोड़कर फिर से अमृता का अभिवादन किया, “अमृता... कितना सुंदर नाम है... तो आप अदिति की कज़िन हैं...?” वो थोड़ा मुस्कुराई और बोलीं, “थैंक यू... नहीं... दोस्त हूँ... और ऑफ़िस कुलीग भी...” “और मैं... गगन और अदिति का कॉलेज फ़्रेंड...” “हम्म... अदिति ने आपका ज़िक्र किया था... एक पुराना दोस्त भी इस सफ़र में आ रहा है... और वैसे भी आप सभी से इतनी गर्मजोशी से मिले और मिलते ही इतना हँसी मज़ाक़ करने लगे… तो मैं समझ ही गई थी कि आप ही वो पुराने दोस्त हैं...” इस बार उसकी मुस्कुराहट थोड़ी बड़ी थी, लेकिन कुछ ही सेकंड में ख़त्म हो गई। हमारे बीच अभी के लिए संवाद ख़त्म हो चुके थे। हालाँकि, नज़रें मिलाकर और कभी चुराकर एक-दूसरे को देखना, बदस्तूर जारी था। “तो मिस अमृता... आप दिल्ली से ही हैं...?” शांत पड़े संवाद को फिर से शुरू करते हुए मेरा अगला सवाल था। “जी... लोधी रोड... और आप...?” “मैं मेरठ से हूँ... लेकिन आजकल नौकरी के चलते बैंगलोर मेरा ठिकाना है...” संवाद फिर ख़त्म हो चुका था। संवाद के ख़त्म हो जाने के बावजूद भी, कभी अमृता मुझे निहारती, कभी मैं उसे। ना जाने क्यों मेरा दिल, मुझे बार-बार ये कह रहा था कि मैं अमृता से बात करूँ। जबकि यक़ीन मानिए मैं स्वभाव से बहुत रूखा, बेपरवाह, निर्मोही और निर्लोप इंसान हूँ। वाकई कुछ आकर्षण था अमृता चेहरे पर। शायद कोई रूहानी नूर। उसकी मुस्कान, बिजली की तरह कौंधकर मेरे दिल में समा गयी थी। आह कितनी वेदना थी उसकी उस मुस्कान में। ठीक वैसी, जैसी दो साल पहले आख़िरी मुलाक़ात में इंदिरा के चेहरे पर मैंने पायी थी। जी हाँ, इंदिरा मेरी भूत-पूर्व प्रेमिका। वही इंदिरा जिसके साथ से मैंने जाना था कि प्यार क्या होता है। जिसके साथ हर लम्हा, हर दिन नया नज़र आता था। लेकिन नियति को हम दोनों रिश्ता मंज़ूर नहीं था। वाकई बमुश्किल दिल पर पत्थर रखकर उसने कहा था, “निशांत... मैंने घर में तुम्हारे और अपने बारे में बात की थी....मम्मी पापा शायद ही कभी हमारे रिश्ते को राज़ी होंगे... मेरे अंदर नहीं है हिम्मत कि मैं कोर्ट मैरिज कर लूँ या घर से भाग कर पूरे समाज में उनकी बदनामी करवा दूँ.... बहुत पिछड़े बैकग्राउंड से हैं हम....नहीं आगे बढ़ पा रही मेरी फ़ैमली इस रिश्ते को लेकर.... मैं जानती हूँ कि मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करती हूँ... और तुम भी मुझसे उतना ही प्यार करते हो… मैं बहुत डरी हुई हूँ....अपनी फ़ैमली के रिएक्शन को लेकर... प्लीज़ आई थिंक वी शुल्ड स्टॉप दिस थिंग हियर फ़ाइनली... तुम हमेशा मेरी अच्छी यादों में ज़िंदा रहोगे...” इतना कहते हुए उसकी आँखों में आँसू थे और चेहरे पर पीड़ा और दर्द भरी मुस्कान। उस दिन मैंने असंख्य कोशिशें की थीं कि इंदिरा अपना फ़ैसला बदल दे। मैं रोया। अपने सबसे डाउन पर भी आ गया। मैंने बोला इंदिरा को कि उसके सिवा अब कोई मेरे दिल में नहीं आ पाएगा। मैं पहले जैसा नहीं रहूँगा। हर कोशिश करूँगा उसके घर वालों को मनाने की। मगर इंदिरा अपने फ़ैसले पर अडिग थी। वैसे भी ये सच है न जब सामने वाला कोई अंबुजा सीमेंट जैसा अपना पक्का फ़ैसला आपको सुनाता है, तो उस फ़ैसले में भविष्य की नींव रखी होती है। और मेरी पढ़ाई-लिखाई और सिद्धांतों से तो मैंने इतना ही जाना था कि जिससे हम प्यार करते हैं, उसके फ़ैसलों का भी हमें सम्मान करना चाहिए। उन पल मैं अलग होने के इंदिरा के इस फ़ैसले से परेशान था। इंदिरा ने मुझे गले से लगा लिया। वाकई कितनी पीड़ा हुई थी उस दिन, उसे और मुझे। मगर नियति को यही मंज़ूर था। ज़िंदगी की रेलगाड़ी, समय की पटरी पर आगे बढ़ चली थी। और आज अमृता में, मैंने अपने अतीत का वही झरोखा देखा था। अपने दिल में उमड़ते भावों के आगे मजबूर होता हुआ, मैं आख़िरकार बोल ही पढ़ा, “वैसे ये एहसान क्यों है अमृता जी...?” “मैं कुछ समझी नहीं...” “मेरा मतलब आपकी मुस्कुराहट...” “क्यों... क्या हुआ... मेरी मुस्कुराहट को...” शायद वह समझ गयी थी। मगर अनजान बनकर फिर से उसी तरह मुस्कुरा पढ़ी। “अच्छा... आपको सच में नहीं मालूम... माफ़ी चाहता हूँ... मैं आपके लिए एकदम अनजान व्यक्ति हूँ... मगर आप जब मुसकुराती हैं... तो ऐसा लग रहा है… जैसे कितने ग़मों को छिपाए... आप नैनीताल की वादियों में बस कहीं खो जाने के लिए निकली हैं...” “नहीं ऐसी कोई बात नहीं है...” मेरी तरफ़ देखकर हल्के से नज़रें झुकाकर, मुस्कुराते हुए उसने मुझसे कहा। वैसे ये सच भी है कि जिस भी समय, हम जिस भी परिस्थिति से गुज़र रहे होते हैं, उसके भाव हमारे चेहरे पर न चाहते हुए भी दिख ही जाते हैं। बस निर्भर यह करता है कि आपके उन भावों को कितने लोग समझ पाते हैं और कितने नहीं। “क्या आप चेहरा पढ़ना जानते हैं...? जब इंसान प्रेम संबंधों में उतार-चढ़ाव से गुज़र रहा हो... तो क्या वह आत्मीयता से मुस्कुरा सकता है...?” अचानक उसके इस सवाल ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया था। जिस जुदाई को मैंने बमुश्किल काटा था, उसे मैं अब अमृता में महसूस कर सकता था। आख़िर अमृता ने मेरे समूचे अस्तित्व की कठोर धरा को केवल अपनी छाया से हिलाकर रख दिया था। जिस अतीत को भुलाकर मैं ज़िंदगी में आगे बढ़ रहा था, उसने मेरे अंदर अतीत की उन्हीं भावनाओं के सैलाब को उमड़ा दिया था। बहुत अपनापन लगा था मुझे अमृता को देखते हुए। अमृता मेरे लिए एकदम अनजान थी। मगर मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उसे कितने सालों से कितनी अच्छी तरह जानता हूँ। “मगर किसी के दूर हो जाने से... हम जीना तो नहीं छोड़ सकते न... और भला नैनीताल की मनोरम वादियों में इतनी नीरसता का क्या काम... अपने इस सफ़र को एंजॉय कीजिए... एक बार पुरानी बातों को भुलाकर खुलकर हँसने की कोशिश करके देखिए... जानता हूँ थोड़ा मुश्किल है... मगर एक बार कोशिश करके देखिए... शायद आपको अच्छा लगे...” वो मुस्कुराई और बोली, “मगर वो जीना भी क्या जीना होता है...? जिसमें सिर्फ़ साँस लेने भर मे दर्द होता है...” “लेकिन असली इंसान तो वही है... जो ग़मों पर जीत हासिल करता है... और वैसे भी हमारी ज़िंदगी में प्रेम के और भी मार्ग हो सकते हैं... अपनी फ़ैमली की ओर ही देख लेना चाहिए... जो हमारी हज़ार ग़लतियों को इस क़दर नज़रअंदाज़ कर देते हैं... जैसे कुछ हुआ ही न हो...” “हाँ... मैं अपनी फ़ैमली के मेरे लिए त्याग और संघर्षों को बख़ूबी महसूस कर सकती हूँ... मेरे घर वाले भी राघव को पसंद करते थे... लेकिन वो हमारे रिश्ते को सिर्फ़ कैज़ुअल रखना चाहता था... वो कभी घर नहीं बसाना चाहता… मेरे घर वाले मुझ पर कहीं और शादी के लिए दवाब बना रहे हैं... लेकिन मैं राघव को नहीं भुला सकती… मैंने उसे ये सब बताया भी... लेकिन उसने बहुत बेरुख़ी दिखाते हुए सभी रिश्ते तोड़ लिए...” इतना कहकर वह थोड़ी भावुक हो गई। वैसे सच ही है कि एक औरत, पुरुष से सिर्फ़ प्रेम, सम्मान और विश्वसनीयता के अलावा कभी कुछ नहीं चाहती। “अरे! ठीक है... नो बिग डील... ज़िंदगी में हम एन नंबर लोगों से मिलते हैं... लेकिन आख़िर तक कुछ ही लोगों को हम अपने इर्द-गिर्द पाते हैं... और देखा जाए तो ठीक भी है... बाद में जाकर आप उस रिश्ते को ज़बरदस्ती ढोतीं... परेशान रहतीं... इससे अच्छा हुआ कि उस पर वहीं पूर्ण विराम लग गया... मेरा यक़ीन मानिए... ख़ुद को समय दीजिए... आप हँसा करेंगी उस समय को याद करके... और अगर कुछ कर सकतीं हैं... तो उस रिश्ते की अच्छी यादों को अपने दिल ज़िंदा रखिए...” मेरा अमृता को यह बात कह देना, बेशक सामान्य था। लेकिन इस दर्द के सफ़र को मैंने भी बमुश्किल काटा था। जब आपका कोई अपना, आपसे सभी रिश्ते तोड़ ले और आपके बीच एक आम दोस्त जैसी स्थिति भी न रहे, तो यक़ीन मानिए बहुत मुश्किल होता है, ख़ुद को संभालना। वैसे मैं ये सब पंचतंत्र की कहानियों जैसी मोटीवेशनल बातें बोलकर, अमृता को बस सहज महसूस करवा रहा था। मैं अब-तक अमृता को ज़हनी तौर पर थोड़ा-थोड़ा समझने लगा था। अमृता की उम्र थोड़ी थी, मगर प्रेम संबंध मे मिला दर्द बहुत गहरा था। मैं मन ही मन उसके लिए प्रार्थना कर रहा था कि कहीं ये भी प्रेम से विरक्त, भावनाहीन इंसान न बन जाए। अगर आप नियति में विश्वास रखते हैं, तो यक़ीन मानिए यह नियति ही तय करती है कि हम कब, कहाँ, कैसे और किससे मिलेंगे। वैसे भी एक इंसान के किए की सज़ा, हम पूरी मानव जाति को तो नहीं दे सकते न। ठीक ऐसा ही कुछ अमृता से सुनकर मैं थोड़ा हैरान था। जब उसने कहा, “राघव की बेरुख़ी को मैं कभी नहीं भुला सकती... मगर आप ही बताओ मैं उसके लिए कैसे बुरा चाह सकती हूँ... आख़िर मैंने उससे प्यार भी तो किया है... मेरी हमेशा उसके लिए दुआएँ होंगी... वो हमेशा जहाँ भी... जिस किसी के साथ हो... ख़ुश रहे... मैं उसे कभी दु:खी नहीं देख सकती... थोड़े ही सही मगर कुछ तो अच्छे पल हमने प्यार मे बिताए ही थे... जो इस ज़िंदगी में उसकी अच्छी यादों को हमेशा ज़िंदा रखेंगे...”। “मुझे ख़ुशी हुई कि आपकी सोच बहुत अच्छी है... बस आप ख़ुद को इतना अकेलेपन में मत ढकेलों... आपके आगे बहुत बड़ी और हसीन ज़िंदगी है... एक अच्छा भविष्य बाहें फ़ैलाए आपका इंतज़ार कर रहा है...” “शुक्रिया... आपसे बात करके अच्छा लग रहा है...” “मुझे भी...” हम दोनों के बीच फिर अचानक संवादों की शांति छा गई। मगर ट्रेन के चलने का शौर, उस शांति में अच्छा लग रहा था। रात जैसे-जैसे गहरी होती जा रही थी, ठंड भी वैसे-वैसे बढ़ रही थी। बातों के इस सिलसिले में हम रामपुर पार कर चुके थे। मैं अमृता में ख़ुद को प्रतिबिम्बित पा रहा था। मुझसे एकदम अनजान होते हुए भी, वह अपने अनुभव मुझसे एक अच्छे दोस्त की तरह बाँट रही थी। मेरा मन तो हुआ कि उसे गले लगा कर कहूँ कि तुम बेकार ही इतना दु:ख और कष्ट अपने मन लिए ज़िंदगी जी रही हो। समय हर चीज़ की दवा होता है। सब एक दिन अतीत की स्मृतियों में समा जाएगा। तुम अपने इस सुंदर चेहरे पर बेकार ही वेदना से भरी मुस्कान रखती हो। खुलकर मुस्कुराया करो। ज़िंदगी के हर एक पल का खुले दिल से स्वागत किया करो। तुम्हारा व्यक्तिव बहुत सकारात्मक है। तुम बेकार ही अपने चारों तरफ़ नकारात्मकता की चादर ओड़े घूम रही हो। मगर मैं अपनी भावनाओं को नियंत्रण रखता हुआ रुके हुए संवाद को फिर से शुरू करता हुआ बोल पढ़ा, “जानती हो... बहुत कम लोगों को हम सही-सही पहचानते हैं… हर इंसान का थोड़ी सा व्यक्तित्व ही हम समझ पाते हैं...” “वाकई किसी इंसान को हम पूरी तरह कहाँ समझ पाते हैं...?” “तो बीत चुके समय के बारे में सोच-सोच कर तो आपको अपनी एनर्जी बर्बाद नहीं करनी चाहिए न... अच्छा एक बार आप मुस्कुरा कर दिखाइए...” वह मुस्कुराई। “अरे! इस तरह नहीं... अपने व्यक्तिव से... ये तो ऐसा लग रहा है जैसे आप मेरे उपर एहसान कर रही हैं...” अचानक ही वह खुलकर हँसने लगी, निःसन्देह वह कृत्रिम हँसी नहीं थी। उसकी हँसी से न जाने क्यों मेरे दिल को बहुत सुकून मिला था। अनजान होते हुए भी ऐसा लग रहा था कि अमृता की उस एक क्षणिक मुस्कान के लिए मैं बहुत कुछ क़ुर्बान कर सकता हूँ। ऐसा मेरे साथ, इंदिरा के जाने के बाद पहली बार हुआ था। मैंने अमृता में बहुत अपनापन पाया था। मेरे मन के महासागर में बहुत से विचार गोते लगा रहा थे, जिनको चीरते हुए अमृता की आवाज़ सुनाई दी, “निशांत अदिति ने बताया था कि पुराना दोस्त बेहतरीन कविताएँ भी लिखता है...?” “हाँ... आपको पसंद हैं कविताएँ...?” “कहानी... कविताएँ... किसको पसंद नहीं होतीं...? साहित्य तो ज़िंदगी का दर्पण होता है... साहित्य बिन ज़िंदगी ऐसी होती है... जैसे आत्मा बिन शरीर...” बात करते-करते हम दोनों ही अपनी-अपनी बर्थ पर लेट चुके थे। ट्रेन की आवाज़ अच्छी लग रही थी। ट्रेन में अंधेरा था। मगर हमारी बर्थ की छत पर जल रहे डिम बल्ब की हल्की सुनहरी रोशनी, हम दोनों के चेहरों पर इस तरह पड़ रही थी, जैसे बिकट अंधेरे में मोमबत्ती की लौं। “तो निशांत कौन सी रचना सुना रहे हैं आप...?” उसने बहुत विनम्रता पूछा। हल्की झीनी रोशनी में चमकते अमृता के चेहरे को देखते हुए, मैंने अतीत के झरोखों से उसे अपनी लिखी एक कविता सुनना शुरू कर दिया, “प्रेम और एहसास का दामन थामे ज़िंदगी की राहों में हम साथ ही तो चले थे कभी काली घटाओं, कभी पीली रोशनी कभी नीली छत, कभी गीली सड़क कभी सर्द गर्म हवाओं के साए में हम पले थे राहों में बिछे सामाजिक काँटों की चुभन से हमारे पाँव से लहू निकला हृदय की धड़कने कुछेक लम्हों के लिए घबराईं स्वप्नों से सजी आँखें बहुत देर तक पथराईं ज़िंदगी फिर भी हरेक ग़म में मुस्कुराई आत्मविस्मृतिय ज़िंदगी के प्रेम शिखर से कुछेक दूर पहले मेरे हाथों में तुम्हारे हाथ, मेरी साँसों में तुम्हारी ख़ुशबू मेरी आत्मा में तुम्हारे स्पर्श, मेरी आँखों में तुम्हारी छवि आख़िर क्यों? कमज़ोर, धीमी, ग़ायब और धुंधली पड़ गई आख़िर क्यों? इतने संघर्षों के बाद मुझे अकेला छोड़, तुम वापस अतीत की तरफ़ मुड़ गईं आँसूओं से हुए जलभरव की राहों में ज़िंदगी की काली घनी छाँव में तुम्हारी स्मृतियाँ लिए अपनी निगाहों में तुम्हारी वापसी की दुआओं में मैं बहुत देर तक रुका तुम्हारे न लौटने पर आँसू पी चुका मेरा कंठ, नीरस हो चुकी मेरी भावनाएँ ख़लिश और बेरुख़ी से भर चुकी मेरी आत्मा दर्द से कुम्लाहे मेरे एहसासों को पीड़ा, वेदना और उम्रभरआंवे की तरह भीतर ही भीतर सुलगना मिला प्रेम और एहसास का दामन थामे ज़िंदगी की राहों में हम साथ ही तो चले थे...” कविता सुनते-सुनते अमृता की आँखें बंद थी। मगर बंद आँखों से उसके चेहरे पर आँसूओ की कुछ बूँदें ढलक पड़ी थीं। मैंने उसे बिना बताए डिम बल्ब को बंद कर दिया। हमारी बर्थ में अब पूरी तरह अंधेरा था। इस सफ़र में लोगों से मिलने को लेकर सुबह से, मेरे मन में उत्सुकता थी। लेकिन मुझे मालूम नहीं था कि उन्हीं में मुझे कोई ऐसा अजनबी शख़्स मिलेगा, जो मुझे बहुत अपना लगेगा। जिसके होने से मुझे यह एहसास होगा कि अतीत चाहे कितना भी दु:खद क्यों न हो, मगर उसकी स्मृतियाँ हमेंशा सु:खद होती हैं। हम अपनी-अपनी ज़िंदगियों में अवसाद लिए दु:खों, ग़मों से लड़ते-झगड़ते भाग ही तो रहे हैं, लेकिन इस ज़िंदगी में कभी-कभी कोई ऐसा अजनबी शख़्स मिलता है, जो इतना अपना लगता है कि उसके साथ ज़िंदगी में ठहरने को मन चाहता है। अमृता से मिलना मेरे लिए कुछ ऐसी ही घटना थी। मैंने अब फिर से अमृता के चेहरे की तरफ़ देखा। अब वह शायद सो चुकी थी। चारों तरफ़ सिर्फ़ ट्रेन के चलने का शौर था। मगर अमृता से मिलने के बाद मेरे मन में बहुत शांति थी।